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Monday 6 February 2012

महर्षी अगस्त्य के गुरुकुल में मर्यादा पुरुषोत्तम जननायक प्रभू राम

महर्षी अगस्त्य के गुरुकुल में मर्यादा पुरुषोत्तम जननायक प्रभू राम


संख्या 1महर्षी अगस्त्य अपने शस्त्रों के आगार से नव निर्मित अस्त्र् राम को बहाल करते हए
.... उस क्षेत्र में एक अनोखा कार्य शिव-शक्ति के आशीर्वाद से जागृत है। मैं ने उस जनता के लिए प्राचीनकाल से चली आ रही तमिल नामक बोलीभाषा को संस्कारित कर उसके व्याकरण का निर्माण सिद्ध किया है। ताडपत्र पर लिखने की कला का अविष्कार कर द्रुत गति से लेखन की कला अवगत कराई है। आनेवाले समय में अनेक अन्य महर्षी अपने अपने गुरुकुलों में इस लेखन विधी से आनेवाली अनेको अनेक पीढीयों के जातकों का जीवन भविष्य जान कर उस कथनों को ताडपत्रोंपर पर रेखांकित करेंगे
मैं मानता हूं राम, आपका जीवित कार्य करुणाभाव से प्रेरित होकर जनकल्याण के लिए स्वार्थी राजसत्ता को नष्ट कराने का है।
तो हमारे जैसे ऋषियों को आप के जीवित कार्य़ को आगे बढाने काम करेंगे। आप के उपरांत हम ऋषिगण आप के आदर्शों को सदियों तक चेतना का स्त्रोत बनाकर पीडित जनसमुदाय को करुणा भाव से उत्पन्न नाड़ी भविष्य कथन तथा इच्छुक व्यक्तियों को उनकी कर्मगती के अनुसार मार्गदर्शन करते रहेंगे।  ....
श्री नरेंद्र कोहलीजी की रचना अभ्युदय से कुछ अंश में नाडीग्रंथों का संदर्भ जोड़कर…
आप लोग कौन हैं?’ एक साधारण वृद्ध ने पुछा। मैंने तुम्हे यहां पहले कभी नहीं देखा?’
मैं अयोध्या के चक्रवर्ती दशरथ का पुत्र हूं – राम। यह मेरा भाई सौमित्र है। राम ने परिचय आगे बढाया। यह मेरी पत्नी वैदेही सीता है तथा यह हमारा मित्र, सहयोगी एवम् शस्त्रागार प्रमुख - मुखर है। हम ऋषि अगस्त्य को मिलने आपके गुरुकुल में आए हैं।
ओहो राम, आओ आओ, आपका स्वागत है हमारे विद्यापीठ में। महर्षी अगस्त्य ने आगे होकर कहा। हे लोपामुद्रा, देखो तो कौन आया है आज अपने यहां यहां!’
अगस्त्य को देखकर राम पर एक बृहद बरगद का सा प्रभाव पड़ा। जिसकी छाया में पुरा आश्रम बना हुआ था। अगस्त्य आश्रम का वातावरण अब तक देखे हुए समस्त आश्रमोंसे भिन्न था। यहां खुलकर शस्त्र प्रशिक्षण चल रहा था। स्वयं ऋषि भी शस्त्र धारण किए हुए थे। राम, सीत तथा उनके साथियों का आश्रम में हार्दिक स्वागत हुआ। अगस्त्य ने उनका सत्कार उस प्रकार किया जैस वे उनके अत्यंत आत्मिय हो और उनसे वर्षों पुराना व्यवहार है।
माता लोपामुद्राने सीता को आपने वक्ष में भींच लिया। सीता गदगद कंठ से सम्बोधन निकला, ऋषि मां। लोपामुद्राने उन्हे बाहों की दूरी पर रख कर मुग्ध दृष्टी से निहारा के कहा, हांसे सीख लिया यह सम्बोधन मेरी बच्ची? सीता बोली, ‘आपके लिए दुसरा संबोधन हो ही कैसे सकता है मां? वैसे यह शब्द मैं ने मुनि धर्मभृत की अगस्त्य कथा में सुना है
मैं ने भी सुना है पुत्री कि किसी युवा मुनिने अगस्त्य कथा ताड़पत्र पर लिखी है। वैसे तो सारा जनपद ही मुझे ऋषि मां कहता है। प्रभा को जानती हो? वह, जो सेना नायक पति की शल्यचिकित्सक पत्नी है । प्रत्येक छोटे-बड़े युद्धों के पश्चात उसका महत्व बढ़ जाता है। वह तो मेरी पुत्री है ही तुम भी मेरी पुत्री हो, सीते

लोपामुद्रा लुब्ध भाव से बोली, पति के अभियान में साथ चल पडने वाली स्त्रियां अब नही रही। विंध्याचल पार कर एक अगस्त्य के साथ भारद्वाजी लोपामुद्रा आयी थी । अब राम के साथ जानकी आयी हैआओ, तुम्हे अपना शल्यचिकित्सालय दिखाऊं और पुत्री प्रभा से मिलाऊं
राम के साथ आए हुए लोग क्रमशः लौट गए थे। लक्ष्मण और राम के साथ मिले एक भील शूरवीर सेनानायक मुखर आश्रम के अन्य विभागों का निरीक्षण में व्यस्त हो गए। राम जब से आए थे, अगस्त्य ऋषि के साथ एक लंबे संवाद में उलझे हुए थे। क्रमशः सीता, लक्ष्मण मुखर जान गए की अगस्त्य और राम का संवाद कोई दार्शनिक अथवा सैद्धांतिक विवाद नहीं था। वह उन दोनों के चिंतन का विषय था।
लोपामुद्रा सीता को लेकर मुख्य कुटिया में आयीं। राम और ऋषि आमने सामने बैठे हुए थे और ऋषि कुछ कह रहे थे। उन्होंने सीता और लोपामुद्रा को बैठने का संकेत किया और अपनी बात जारी रखी... जब सारा मानव-ज्ञान, क्षमता, बुद्धि, प्रयत्न – सब कुछ आकर स्वार्थ पर टिक जाएगा तो स्वार्थ की परिसीमा भी संकीर्ण होने लगेगी। उसमें कोई ऐसी बात नही सुनी जाएगी जो मनुष्य के स्वार्थ से विमुक्त कर मानवता की ओर संमुख करती हो। तुम क्या समझते हो? कि रावण केवल आर्य अथवा वानर बुद्धिजीवियों की हत्याएं करता है? वह किसी भी जाति, देश या काल के इस बुद्धिजीवी की हत्या कर देगा जो स्वार्थ परक व्यवस्था का विरोध करेगा। स्वार्थ की सीमा में संकीर्ण होती यह व्यवस्था मात्र स्व को देखती है। उदारता को शत्रुता ओर जिज्ञासा को विरोध मानती है। स्वयं लंका के सामान्य तथा दुर्बल नागरिक किस प्रकार से पिस रहे होंगे यहां बैठकर यह समझ पाना बहुत कठिन है। एक ओर भौतिक दृष्टिसे संपन्न लोग है ओर दुसरी ओर अत्यंत विपन्न लोग। वैसे सुख भी एक मानसिक स्थिती है। अतः रावण जैसे संपन्न लोग कितने सुखी है - कहना कठिन है। वे लोग अधिक से अधिक भौतिक संपन्नता और सुख की ओर बढे हुए विवेक के सारे बंधन तोड चुके है। सिवाय निज के अन्य कोई चिंता उन्हे नहीं है। इसलिए वे लोग आए दिन बरबरता में निहीत सुख और स्वार्थ की चरम स्थिती में अपने सहजाती मानव का मांस खाने लगते हैं और दुसरी ओर शोषित वर्ग की असहायता की यह सीमा है कि जिसका मांस खाया जाता है – वह कुछ कहने कि स्थिती में नहीं है। सारे संबंध को उन्हों ने स्वार्थ अर्थात धनपर टिका है। इसलिए वे धनी तो है पर अपनी क्रूरता में मानवता को भूल कर राक्षस बन गए है।
...यह तो एक अंधकार है राम, जो सारे आकाश पर छाता जा रहा है। और अपने हिंस्त्र पंजों में धरती को दबोचा जा रहा है। उसके प्रतिकार के लिए तो सूर्य को ही धरती पर उतरना होगा, उससे कम में तो इससे लड़ना कठिन है। राम का गंभीर स्वर गुंजा, सारा दंडकवन जाग उठा है। हमने एक एक ग्राम शस्त्रबद्ध कर दिया है। स्थान स्थान पर अनेक राक्षस मारे जा चुके है। जो मारे नही गए वे भाग गए है। दिन दो दिनों की बात नहीं कह रहा – हम दस वर्ष से यहां भटक कहे है और संगठन का काम कर रहे हैं।...
मैं चालीस वर्षोंसे बैठा हूं राम । ऋषि का स्वर और उग्र हो गया। तुम जिस वर्षों की बात कर रहे हो, मैंने भी कितने राक्षसों का वध किया भगाया। किंतु उससे क्या हुआ? राक्षस समाप्त हो गए या साहस शक्ती समाप्त हो गई?  उलटे वे अधिक फैल गए। उन्होंने उन स्थानों को, जाकर खोज़ निकाला; जहां मनुष्य और भी निर्बल, और भी निर्धन तथा और भी असंघठित है। परिणामतः पहलेसे भी अधिक संख्या और मात्रा मे मानव पीडित है
ऋषि कुछ रुके, तुमने क्या किया राम? जहां जहां लोगोंको संगठित किया वहांसे राक्षस निकल गए। जानतो हो वे कहां निकल गए? – वे सब जनस्थान में रावण के सेनापती वन रक्षक के पास पहुचे हुए है। वहां साम्राज्य सेना एकत्रित हो रही है। लंकासे वह स्थान बहुत दूर भी नहीं है। तत्काल रावण द्वारा सहायता पहुंचाई जा सकती है। साम्राज्य की ओर से समस्त अधिकारों से युक्त व्यवस्था की वह सेना है, स्वयं रावण की बहन शूर्पणखा वहां विद्यमान है। वह सेना आक्रमण करेगी तो क्या होगा? तुम्हारा कौनसा संगठन उसे रोक पाएगा? टोला नही, उस व्यवस्था की सेना है जो दशों दिशांओं में राक्षसों को जन्म देती है। उन्हे पोषित करती है,  उनको संरक्षण प्रदान करती है और आक्रमण कि स्थिती में उस सेना को रोका नहीं गया तो हम वह ग्राम या वनों में बसने । वहां दंडकवन में ही नही, ग्रामों पुरवों, नगरों को भी उस प्रकार उखाडती चलेगी जैसे झंझावात नन्हे पौधों को उखाड़ता है। अथवा हल की फाल गीली धरती को उधेड़ती है
तुम जानते हो राम, यदि विनाश लीला हुई तो उसके लिए उत्तरदायी तुम होंगे - क्योकि इसके कारण तुम हो। तुमनेही उत्तेजना दी है ऋषि का चेहरा देख सीता का मन कांप उठा। कितने उत्तेजित थे गुरू कितने उग्र... किन्तु राम...
राम की आखों की गहराई में जैसे हंसी छा गई,

संख्या 2 दंडकारण्य स्थित अगस्त्याश्रम के मार्गपर
मैं राम हूं ऋषिवर और राम अपने किसीभी दायित्व से नहीं भागता। यदि यह मेरे ही कारण हुआ है तो तनिक भी बुरा नहीं हुआ। यदि मैंने जीवन दर्शनों के विरोध को उसी उग्रतासे उभारकर एक दुसरेके आमने सामने खड़ा कर दिया है तो क्या हुआ?  विनाश लीला तो होगी, किन्तु आप मेरा विश्वास करें कि इस लीला में राक्षस पक्ष अपने अत्याचारों का दे पाएगा। - जिस विनाश की स्थिती से आप आशंकित है, जनसामान्य का वह विनाश नहीं हो पाएगा। उसके मरने के नहीं जीने का दिन आ गया है।
यह राजकुमारों का आखेट नहीं है, राम अगस्त्य का स्वर और भी कटु हो गया, यह अंधकार का जीवन-मरण का संघर्ष है। सुख सुविधाओं में पले राजकुमारों को यह महंग पडेगा। तुम भी समझते हो कि छोटे मोटे राक्षसों की हत्याओं से रावण को एक खरोंच तक नहीं लगती। मैं ने कालकेयों को का नाश किया, तो वह उनका सहायता को नहीं आया! क्योंकि उनसे वह रुष्ट, किंन्तु जनस्थल में स्वयं उसकी बहन है, उसके अपने सेनापति है, तो संबंध की दृष्टी  से उसके भाई भी है। उनका विरोध होते ही साम्राज्य क्रूर होउ उठेगा।  वह अपनी समस्त शक्ती से टूट पड़ेगा। उसकी शक्ती को जानतो हो उसके पास भयंकर कवचधारी रथ है – तुम्हारे पास एक घोडातक नहीं है। उसके सहस्त्रों भयंकर शस्त्रधारी राक्षस तुम्हारे छोटेमोटे आयुधोंवाले नौसिखिए सैनिकों को घड़ी–भर में समाप्त कर देंगे। तुम उसकी शक्ति की कल्पना नही कर सकते। स्वयं ब्रह्मा तथा शिव जैसी महाशक्तियां उसकी संरक्षक है। तुम क्या हो – निर्वासित राजकुमार? ऐसा युद्ध होगा कि तुम्हार भाई और पत्नी भी तुम्हें छोड़ भागेंगे ....
नहीं, अनायास सीता के कंठ से चीत्कार फूटा, यह झूठ है
राम सहज रूप से मुस्कुराए, आप स्वयं देखे ऋषिवर, मेरी पत्नीने स्वयं अपना परिचय दिया है, और यह बहुत अच्छा है कि लक्ष्मण और मुखर यहां नहीं है। नहीं तो मुझे भय है कि अपनी उग्रता में वे आपका अपमान कर बैठते। और जहां तक मेरी बात है... सहसा राम का मुखमंडल आरक्त हो उठा, मैं राम हूं । जब राम न्याय के पक्ष में बैठता है तो शिव, ब्रह्मा, विष्णु  जैसे नामों को नही डरता। शक्ती इन नामों में नहीं जन सामान्य में है। मेरा बल जनसामान्य का विश्वास है। कोई शस्त्र, कोई आयुध, कोई सेना, कोई साम्राज्य जनता से बढकर शक्तिशाली नहीं है। आप मेरा विश्वास करें – राम मिट्टी में से सेनाएं गढता है, क्योंकि वह जनसामान्य का पक्ष लेता है। और न्याय का युद्ध करता है
अब बस करें ऋषिवर, राम के चुप होते ही लोपामुद्रा अत्यंत मृदु स्वरमें बोली, बहुत परीक्षा हो चुकी। अब बच्चों को अधिक न तपाएं। इन्हें आशीर्वाद दे दें – ये समर्थ है
ऋषि के चेहरेपर आनंद प्रकट हुआ, तो राम पंचवटी जाने के लिए मैं तुम्हें नियुक्त करता हूं। और इस सारे भूखंड़ की जनशक्ती तुम्हारे हाथ में देता हूं ... न्याय का पक्ष कभी न छोडना और जनविश्वास को अपनी एकमात्र शक्ति मानना।... जाओ मेंरे अनेक आश्रम आपको मदद करेंगे। विंध्यपर्बत के दक्षिण मे एक आश्रम पंचवटी के निकट है। अनेक नील पर्बत के पास है। शिव पंचमहाभूतों के आधार से स्थित विविध नगरों के समीप है । एक अरुणाचल में, एक कालहस्ति, एक चिदंबर, एक कावेरी नदी के तीर पर त्रिलोचन, तथा एक कांची स्थित है।  
उस क्षेत्र में एक अनोखा कार्य शिव-शक्ति के आशीर्वाद से जागृत है। मैं ने उस जनता के लिए प्राचीनकाल से चली आ रही तमिल नामक बोलीभाषा को संस्कारित कर उसके व्याकरण का निर्माण सिद्ध किया है। ताडपत्र पर लिखने की कला का अविष्कार कर द्रुत गति से लेखन की कला अवगत कराई है। आनेवाले समय में अनेक अन्य महर्षी अपने अपने गुरुकुलों में इस लेखन विधी से आनेवाली अनेको अनेक पीढीयों के जातकों का जीवन भविष्य जान कर उस कथनों को ताडपत्रोंपर पर रेखांकित करेंगे
मैं मानता हूं राम, आपका जीवित कार्य करुणाभाव से प्रेरित होकर जनकल्याण के लिए स्वार्थी राजसत्ता को नष्ट कराने का है।
तो हमारे जैसे ऋषियों को आप के जीवित कार्य़ को आगे बढाने काम करेंगे। आप के उपरांत हम ऋषिगण आप के आदर्शों को सदियों तक चेतना का स्त्रोत बनाकर पीडित जनसमुदाय को करुणा भाव से उत्पन्न भविष्य कथन तथा इच्छुक व्यक्तियों को उनकी कर्मगती के अनुसार मार्गदर्शन करते रहेंगे। 

-------------------------------------------------------------------------क्रमशः१


महर्षी अगस्त्य आश्रम में पहुचने से पहले की राम कथा।
 संख्या 3 कालकाच्रार्य का आश्रम निवास
रात्री के भोजन के पश्चात वे लोग पुनः चले तो चर्चा आरंभ की।
राम अब महर्षी अगस्त्य के गुरूकुल का क्षेत्र समीप आ रहा है। अभी हम भोजन पुर्व जो बात कर रहे थे उसपर आगे विचार किया जाए।
क्या दीपक तले अंधेरा प्रकृति का यम है?”
ऐसा क्यों है कि जो व्यक्ती स्वयं को सारी मानवजाती के सुख के लिए समर्पित करता है वह अपने परिवार को ही सुखी कर नही पाता?”
क्या किसी महत्वाकांक्षी, किसी परमार्थी के संगीसाथी होना, भाग्. का अभि शआप है?” महान दाईत्वों के लिए कई बार अपने क्षूद्र दायित्वों की उपेक्षा करनी पडतीही है? राम ने कथा के प्रवाह को रोकते हुए कहा।
इसका समाधान क्या हो?  
हे राम, क्या व्यक्ती घर फूके बिना परमार्थ की राह पर चल नही सकता?
राम बोले, ऐसा नही है गुरू देव। मैं मानता हूँ कि ऐसी परिस्थिती आती है। अधिकांश लोग जो लोग संसार की दृष्टी में बहुत महान होते है वे स्वयं अपने परिवार की दृष्टीमें मुर्ख होते है । क्योंकि उन्होंने अपने स्वार्थ को न साधकर एक व्यापक स्वार्थ को साधा है, जो मानवीय स्वार्थ है।  यह अवश्य ही विचित्र है कि कि जो व्यक्ती संसार को एक नया सिद्धांत, एक नया चिंतन, एक नया दर्शन देता है वह बहुधा अपने परिवार को उस सिद्धांत या दर्शन में दीक्षित नही कर पाता। कदाचित इसलिए कि उस नये सिद्धांत से बड़ा एक व्यापक कल्याण तो तर रहा है, किंन्तु अपने परिवार के संकुचित स्वार्थ की रक्षा नही कर पा रहा होता।
भैया, गुरूजी ने समाधान पुछा था! लक्ष्मण ने राम का ध्यान खींचा।
गुरुजी को मैं क्या समाधान दूं?” राम का स्वर शांत था। पर मेरा अपना मत है कि  ऐसी समस्या वहां होती है, जहां जन-सेवा के प्रति समर्पण एक व्यक्ती का है, पुरे परिवार का नहीं। अतः वह व्यक्ति उस परिवार में बाहरी व्यक्ति हो जाता है। यदि पति किसी उद्देश्य के प्रति समर्पित है और पत्नि नहीं है अथवा पत्नि समर्पित है और पति नही है तो एक दूसरे की उपेक्षा की भावना अवश्य उठेगी। बात वहीं रुक गई।
रात के भोजन के पश्चात पहरा आरंभ हुआ। पहली टोली लक्ष्मण तथा उदघोष की थी। वे दोनो वृक्ष पर काफी उंचा सुविधाजनक स्थान देखकर टिक गए थे। राम के निर्देषानुसार उन्होंने धनुष्य तथा तुणीर अपने पास रखे लिए। कवच उन्होंने पहलेसे ही धारण किए हुए थे। कालकाचार्य के आश्रम के ब्रह्मचारी सैनिक आसपास गस्त लगा रहे थे।
आपस में चर्चा होने लगी। एक ने अपने दुर्बल स्वर में कहा, आचार्य कालक ठीक कहते है, राम के इस प्रदेश में आने से पहले भी हम यहां रहते थे और ये राक्षस की बस्तियां और शिबिर भी यहीं थे। ऐसा नही था कि राक्षस हमें परेशान नहीं करते थे। किंतु राम जबसे आए हैं, स्थिती काफ़ी बदल गई है। राम और लक्ष्मण क्षत्रिय योद्धा है। उनके पास भयंकर अस्त्र-शस्त्र है। उस शस्त्रों को उन्होने अपनेतक सीमित नही रखा है। उनका प्रयत्न यही रहा है, कि जहांतक संभव हो, लोग स्थान-स्थान पर राक्षसी अत्याचारों का विरोध करें । उस विरोध का माध्यम शस्त्र है। उन्होंने प्रत्येक इच्छुक व्यक्ती को शस्त्रों के निर्माण और परिचालन की शिक्षा दी है। उनसे अनेक स्थानोंपर राक्षसों का सफल विरोध हुआ है और अनेक ग्रामो में से राक्षसों का अधिपत्य समाप्त हो गया है। इससे राक्षस राम से ही नही, समस्त आश्रमों से नाराज हो उठे है। राम के आश्रम का वे कुछ बिगाड़ नहीं सकते पर अपना क्रोध शेष आश्रमों पर उतारते हैं।
कालकाचार्य कह रहे थे, मैंने कभी नही चाहा की राम हमारी रक्षा करें। मैंने विद्याभ्यास के लिए आश्रम स्थापित किया था युद्ध शिबिर नही बनाना चाहा। आर्य कुलपति कह रहे थे मेरी बात समझने का प्रयास करो वत्सों। मैं अग्नि को स्वयं से दूर रखने का प्रयत्न कर रहा हूं ताकि उसका प्रकाश तो हमें मिले किंतु उसका ताप हमे दग्घ न करें। तुम तो चाहते हो कि मैं अग्नि को कुटिया में लेके आऊं, ताकि मेरा आश्रम जलकर भस्म हो जाए?”…
दूर से अनेक उल्काएं जलने का आभास हुआ। लग रहा था, आश्रमवासियों की तरफ राक्षसों कि सेना बढ रही है। अधिकांश के पास खड्ग थे. चारपांच के पास शूल थे। धनुर्धारी तीन चार थे। लक्ष्मण ने वृक्ष से होकर बाण मारा, बाण अंतिम राक्षस के पीठ में लगा। वह चीखकर भूमिपर गिरा। चीख सुनकर सारे राक्षस पलटे। उन लोगोंका आना अब गुप्त नही था। उनका चीत्कार सुनकर आश्रम के वृक्षों पर सोए पक्षी तक उड़ गए थे। बहुत कम अंतराल में उदघोष, मुकर तथा सीता के धनुष्योंने बाण छोड दिए। राक्षस दोनों ओर की मार से अव्यवस्थित हो उठे। चीखते हुए आश्रम के फाटक सें भाग गए।
भूमिपर गिरा राक्षस अपना भयंकर शूल लेकर उठकर खड़ा हूआ। वह विकट रुप था - विराध का। तब तक राम अपना धनुष्य लेकर आ पहूंचे। साथ में आए आश्रम के ब्रह्मचारी थे किंन्तु थे वे निहत्थे ही।
राम की ओर देखते हुए डपटकर राक्षस बोला, ठहरो धूर्तों, वेश के तपस्वी और स्वभाव से लंपट तुम्हें दंड दिए बिना नही मानूंगा। मैं विराध राक्षस हूं। प्रत्येक सुंदरी मेरी भार्या है।
उसने सबके देखते ही देखते अदभूत कौशल से सीता को उठा लिया और पलट कर भाग चला। निमिषमात्र में सब कुछ हो गया। सब जड़वत खडे हो गए। राम ने पहली बार जाना कि सीता का वियोग उनके लिए क्या अर्थ रखता है। लगा, किसीने उनके वक्ष को फाड़ ह्रदय को ही निकाल लिया है। और उनका शरीर पृथ्वी में धंसता जा रहा है।
राम ने देखा- सीता के हाथसे शस्त्र गिर गया था। स्वयंसे बहुत अधिक शक्तिशाली पुरुष की भुजाओं में जकड़ी वे असहायसी हाथ-पैर मार रही थी। अत्यंत कातर दृष्टी से राम को देख रही थी। लक्ष्मण धनुष्य ताने खड़े थे और उनके सेना नायक मुखर को आदेश दे रहे थे, सावधान, भाभी पर आघात मत कर बैठना।
सीता की दृष्टीने राम के डूबते हुए मन को आग धधगा दी- अब क्या शेष था राम के पास, जिसकी वे चिंता कर रहे थे। ह्रदय किस के लिए डूब रहा था? मन क्यों घबरा रहा था? कैकेयी का मनोरथ पुर्ण हुआ,.. अयोध्या से निर्वासन हुआ... पत्नी का हरण हुआ... फिर प्राणों का क्या करना है  ? चिंता, दुख, घबराहट किस के लिए? उठ. राम लढ। शत्रु का वध कर या प्राण दे दे...
राम का अस्तित्व धधकती ज्वाला में बदल गया। मन जैसे भाव शून्य हो गया। आखों के सामने शत्रू था, कानों में सीता की कातर पुकार के साथ साथ विराध का क्रूर अट्टहास। लक्ष्मण ने परिस्थिती को देखते हुए धनुष्य छोड़ खड्ग लिया था। मुकर विभिन्न शस्त्र थामे तत्पर खड़ा था कि कब आवश्यकता पडे और वह राम तथा लक्ष्मण को उपयुक्त अस्त्र पकडाये; या आवश्कता पडनेपर स्वयं प्रहार करे...किंन्तु ये युद्ध विचित्र था। विराध शस्त्र नही चला रहा था। उसने अपने दोनो हाथों से सीता को पकड़ रखा था और जिधर से आघात हो उसी ओर सीता को सन्मुख कर देता था। सीता के शरीर से कवच का काम ले रहा था।
राम ने लक्ष्मण की ओर देखा । कदाचित वे इस कठिन स्थिती से निकलने के लिए राम की तरफ़ से कोई संकेत चाह रहे थे। निर्णय तात्काल होना चाहिए था। विलंब होने पर विराध को भागने का अवसर मिल सकता था।
मल्लयुद्ध राम ने लक्ष्मण से कहा और अपना खड्ग मुखर की ओर बढाया। अगले ही क्षण राम ने विराध की स्थूल भुज़ा अपनी उंगलियों की शक्तिशाली जकड़ में ले ली। ... विराध की पकड़ ढीली पड़ते ही सीता छूटी और धरती पर पाँव पड़ते ही अपना खड्ग संभाल लिय़ा। लक्ष्मण शस्त्र लेकर मल्लयुद्ध में कूद पडे। में कभी राम भारी पड़ते थे तो कभी विराध। कहना कठिन था कि मुष्ठीप्रहार से आहत कौन होगा। उन्हों ने विराध की बायीं भुजा मरोड़ दी।  विराध को भुमी पर पछाड दिया और अपने पैर उसके कंठपर रख कर ऐसे खड़े हो गए कि उसके आधे प्राण निकल चुके हो।
यह राम का ऐसा दांव था, जिसमें पडकर बड़े से बड़ा बलशाली पुऱुष भी उससे निकल     नहीं सकता था। विराध पुर्णतः अक्षम हो गया । द्वंद्व की असुरक्षित घड़ी में राम का ध्यान उस ओर नहीं गया था । किन्तु कुछ सहज होते ही उन्हों ने पुछा, तुम कौन हो?”
मैं विराध हूं। गंधर्व। पहले स्वयं को राक्षस क्यों कहा था?” राम ने पुछा।
थोडी मार पड़ी तो राक्षस से गंधर्व हो गये?” लक्ष्मण ने हंस कर कहा।
नहीं मैं गंधर्व हूं और गंधर्व ही रहूंगा। विराध बोला।
शरीर से मैं अत्यंत बलशाली हूं। इस क्षेत्र में कोई सुशासन नहीं है। कुछ बिखरे हुए आश्रम है और स्थान पर राक्षसों के छोटे छोटे सैनिक स्कंधावार। उचित व्यवस्था के नष्ट करते थे। मेरे लिए एक ही मार्ग था किसी आश्रम में जाकर स्वयं को ज्ञान-विज्ञान में दीक्षित करता या अपनी देहसुख के लिए लूट-पाट, हत्या- बलात्कार। इसमें वैभव था, विलास था, सुख था...  
रावण से तुम्हारा कोई संबंध? राम ने जानना चाहा। उसने तुम्हारी कभी सहायता की?”
रावण से मेरा कोई सीधा संबंध नहीं है। विराध ने उत्तर दिया, उसके सहायकों ने वैसे ही वातावरण बना रखा है कि पग़ पग़ पर राक्षसों और राक्षस नीति का जन्म और पालन पोषण हो रहा है। न्याय का शासन न हो तो प्रत्येक समर्थ मनुष्य अपने आप राक्षस बनता चला जाता है और असमर्थ जनता उसका भक्ष्य पदार्थ... उन्होंने राक्षस बनने में मेरी सहायता की और मैंने राक्षस बनकर उनकी।
विराद कंठ सुकने लगा। आखों के सामने अंधःकार छाने लगा। विराध के प्राण निकले पर उसके शव को ठिकाने लगाकर वे आगे बढ़ आए। शस्त्रभंड़ार के साथ चलते हुए मार्ग मिले ग्राम वासियोंने उन्हें शरभंग आश्रम का मार्ग मालूम हुआ था।
राम का मन उदास हो गया। जिन के पास धन, सत्ता बल और सेनाएं है रावण की अनीति की वर्षा होती रही हो तो कुकुरमुत्तों के समान राक्षस समूहों का जन्म होता रहेगा। रावण ही क्यों और भी विराध जैसे राक्षस जन्मते रहेंगे।
........

मुनि धर्मभृत्य आप मांडकर्णि कथा सुनाते है ना?”
धर्म भृत्य संकोचपुर्वक मुस्कुराया, सुनाऊंगा, पर लक्ष्मण कहेंगे कि लेखक अपना कृती सुनाए बिना रह नहीं सकता
कौन क्या कहेगा - यह सोचकर कर्म करगे तो कर चुके अपने मन की। राम ने कहा, धर्मभृत्य, मैं चाहता हूं की आप अपनी रचना सुनाओ। अब जिसे जो कहना हो कह ले
मैं अभी आया धर्मभृत्य अपने स्थान से उठा और क्षणभर में ही अपनी कुटिया से ग्रंथिबद्ध लिखित ताड़पत्र ले आया। रचना बहुत लंबी है। थोडी थोडी सुनने पर कई दिन लग जाएंगे
धर्मभृत्य कथा आरंभ की। यहांसे थोडीसी दूरी के पश्चात खानों का क्षेत्र आरंभ हो जाता है। यहां अनेक खानें हैं और उनके स्वामी अनेक जातियों के अनेक लोग है। स्वामी बन कर व धनाढ्य बन गए है। उन्ही में से एक खान अग्निवंश के एक कुलवृद्ध अग्निमित्र की थी। मांडकर्णि एक ऋषि है। इस क्षेत्र के महान ऋषि। मांडकर्णि कुछ समय पुर्व उस खान में कर्म करनेवाले श्रमिकों के मध्य शिक्षा कार्य करने के लिए आए थे। श्रमिकों में वानर, ऋक्ष, निषाद, शबर तथा अनेक जाति के लोग थे। पुरुष, स्त्रियां, बालक, वृद्ध यहां तक कि रोगी भी अपनी आजिविका के लिए खानों में काम करने को बाध्य थे। मांडकर्णि ने इस श्रमिकों के जीवन को प्रत्यक्ष तथा अत्यंत निकट से देखा। मांडकर्णि उनकी हालत देखकर द्रवित हो उठे थे। उन्होंने अपना आश्रम त्याग श्रमिकों की बस्ती में रहना आरंभ किया। उन्हे बंदियों के समान बस्ती में रखे जाते थे। मांडकर्णिने उन्हें समझाया कि उनसे उनकी क्षमता से अधिक काम लिय़ा जाता था। उन्होंने खान कर्मकारों को यह भी बताया कि उनके द्वारा उत्पादित खनिज़ पदार्थ पर उनका अधिक अधिकार है, अग्निवंश से भी अधिक। एक बार मांडकर्णिने चेतावनी दी कि खान बहुत अधिक खोदी जा चुकी है। खान की दीवार धस जाएगी और धरती भीतर से धंस जाएगी। सहसा मांडकर्णि की बात सच हो गई। धरती हिली और मिट्टी के पहाड़ के पहाड़ खान में धंस गए। कोई ऐसा घर नही था जिसका कोई न कोई सदस्य उस खान में मर नहीं गया हो। इस घटना को शोक से जब शेष कर्मकर उबरे तो उन्हे केवल मांडकर्णि याद आए। सबसे अधिक विश्वसनीय और निकट के मित्र। मांडकर्णि उस खान के कर्मकरों का कुलपती हो गया। अपने प्राण देकर मांडकर्णि की रक्षा के लिए कर्मकार तत्पर थे। अग्निमित्र का आसन डोल गया। अग्निमित्र स्वयं चलकर मांडकर्णि के पास आया। उसका सत्कार भी किया। उसे अपने साथ दूर दूर के देशों के भ्रमण पर ले गये। अंत में पंचासर में उन्होंने मांडकर्णि के लिए एक सुंदर भवन का निर्माण किया। उसे पांच सुंदरियां तथा पुष्कल धन भेंट दिया। तबसे आज तक मांडकर्णि विलास में डूबा है। कर्मकरों और उनके विरुद्ध होनेवाले अत्याचारों की बात तक उसे स्मरण नहीं
यह उचित नही हुआ सीता धीरे से बोली। कैसा अधर्मी है मांडकर्णि, अपने साथियों के साथ कोई इस प्रकार का विश्वासघात करता है
यह अत्यंत दुर्भाग्यपुर्ण तथ्य है, देवी वैदेही! धर्मभृत्य बोला, किन्तु यथार्थ यही हैपुरस्कार पाने के लोभ में विरोध करनेवाले अनेक जन पैदा हो गए है; विरोध करने का मुल्य चुकाकर भी न्याय के लिए संघर्ष करने वाले लोग विरला होते है
-----------------------------------------------------------------------क्रमशः२


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